Sunday, May 11, 2008

सही सुझाव - Jagran Editorial May 10, 2008

सेतुसमुद्रम परियोजना पर उच्चतम न्यायालय के नए निर्देश रामसेतु के भविष्य को लेकर चिंतित जन समुदाय के साथ-साथ केंद्रीय सत्ता को भी राहत देने वाले हैं। इस विवादित परियोजना पर उच्चतम न्यायालय का अंतिम निर्णय कुछ भी हो, हाल-फिलहाल उन लोगों की मंशा नहीं पूरी होने वाली जो विकास की दुहाई देकर रामसेतु को छिन्न-भिन्न करने के लिए बेकरार थे। इस बेकरारी का सबसे बड़ा सबूत यह है कि तमाम अनुरोध, आग्रह और विरोध के बावजूद सेतुसमुद्रम परियोजना के समर्थकों ने रामसेतु का पुरातात्विक परीक्षण कराना आवश्यक नहीं समझा। इस भूल में संप्रग सरकार सीधे तौर पर शामिल है। उसने अपने सहयोगी घटक द्रमुक के दबाव में आकर सेतुसमुद्रम परियोजना को आगे बढ़ाने में जैसी जल्दबाजी दिखाई उसका ही परिणाम था वह आघातकारी हलफनामा जिसमें राम के अस्तित्व को ही नकार दिया गया था। यद्यपि केंद्रीय सत्ता ने अपनी इस भारी भूल का तत्काल परिमार्जन किया, लेकिन पता नहीं क्यों वह द्रमुक के दबाव का प्रतिकार करने का साहस नहीं बटोर सकी? यह निराशाजनक है कि वाम दलों से त्रस्त संप्रग सरकार कभी द्रमुक के समक्ष घुटने टेक देती है और कभी किसी अन्य घटक के समक्ष। यदि उसने एम्स के निदेशक को हटाने के मामले में स्वास्थ्य मंत्री रामदास की मनमानी के समक्ष हथियार नहीं डाले होते तो आज उसे मुंह छिपाने के लिए विवश नहीं होना पड़ता। इसी तरह यदि वह एक अन्य केंद्रीय मंत्री टीआर बालू को यह समझाने में सफल रहती कि बहुसंख्यक समाज की भावनाओं के साथ-साथ पर्यावरण संबंधी चिंताओं की उपेक्षा करना उचित नहीं तो उसे सेतुसमुद्रम परियोजना पर उन सुझावों पर अमल करने के लिए विवश नहीं होना पड़ता जो न जाने कितनी बार उसके सामने रखे गए।

सेतुसमुद्रम परियोजना के संदर्भ में उच्चतम न्यायालय ने एक ओर जहां वैकल्पिक मार्ग तलाशने का सुझाव दिया है वहीं दूसरी ओर रामसेतु का पुरातात्विक सर्वेक्षण कराने का भी निर्देश दिया है, ताकि उसे प्राचीन स्मारक घोषित करने पर विचार किया जा सके। यह आश्चर्यजनक है कि कुछ ऐसा ही सुझाव मद्रास हाईकोर्ट ने भी दिया था, लेकिन कोई नहीं जानता कि उसकी अनदेखी क्यों की गई? क्या द्रमुक के दबाव में, जो किसी भी मूल्य पर सेतुसमुद्रम परियोजना आगे बढ़ाने पर तुली हुई थी? प्रश्न यह भी है कि आखिर रामसेतु पर आस्था रखने वाले लोगों की भावनाओं का आदर करने से क्यों इनकार किया गया? क्या जनमानस की आस्था से जुड़े प्रश्नों पर किसी सत्ता को वैसा ही व्यवहार करना चाहिए जैसा केंद्र में संप्रग शासन ने किया और तमिलनाडु में द्रमुक सरकार ने? रामसेतु के मसले पर संप्रग सरकार ने अभी तक जैसे आचरण का परिचय दिया है उससे यही प्रतीत होता है कि पंथनिरपेक्षता की उसकी परिभाषा बदलती रहती है। यह सही है कि आस्था को विकास में बाधक नहीं बनना चाहिए, लेकिन ऐसा भी नहीं हो सकता कि आस्था को कहीं कोई अहमियत ही न दी जाए। जहां तक सेतुसमुद्रम परियोजना की बात है, अभी तो यही तय होना शेष है कि क्या यह महंगी परियोजना वास्तव में विकास का वाहक बनेगी? बेहतर हो कि इस परियोजना के समर्थक उससे जुड़ी शंकाओं का निवारण करने में आनाकानी न करें।

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